तस्वीरें…

पुरानी तस्वीरों से,
एक रूहानी रब्त है।
काग़ज़ पर छप चुकी ये तस्वीरें,
अब बदली नहीं जा सकती,
ना चेहरा और रोशन हो सकता है,
ना आँखों में चमक बढ़ाई जा सकती है,
ना गालों को और गुलाबी करने की कोई तरकीब,
ना पीछे की हलचल को छिपाने का तरीक़ा।
बस जो है सो है।
किसी जगह खड़े रह कर,
इब्तिदा-ए-सफ़र की ओर देखना,
तय किए रास्ते का एहसास कराता है,
और उस पल में,
सालों का सफ़र सिमट कर रह जाता है।

तुम एक किताब हो …

तुमसे बार बार मिलना,
हर बार मुझे सिखाता है,
कि क्यों किसी किताब को,
कई बार पढ़ा जाता है।
ज़ाहिर होती है बात,
जो साफ़ तौर पर ज़ाहिर है,
और वो बात जो है,
पर लिखी नहीं गयी,
उसका भी इल्म,
होता जाता है।

आज़ाद…

“मुझे जाने दो साहब। दया करो मुझ पर। जाने दो। अब और नहीं होगा मुझसे ये। जाने दो साहब। मेहरबानी होगी। घर में सब परेशान हैं मेरी वजह से। हाथ जोड़ता हूँ। पैर पड़ता हूँ। जाने दो।”

आसपास की हलचल के बीच मुझे दूर से ये आवाज़ सुनाई दी। नज़र को धार दी तो दिखा कुछ दूरी पर एक बूढ़े बाबा बिस्तर पर लेटे ये सब दोहराए जा रहे थे। उनके पास हल्की नीली वर्दी में एक और आदमी खड़ा था। शायद अस्पताल का ही कोई मुलज़िम था जो थोड़ी देर वहीं खड़ा रहा और फिर वहाँ से चला गया। बिस्तर पर आधी जान हो कर पड़े बाबा अकेले में ही बड़बड़ाते रहे। मेरे सामने से जब अस्पताल का मुलज़िम निकला तो मुझसे रहा नहीं गया और मैंने उसे रोक कर पूछ लिया, “क्यों भाई, उन बाबा को क्या तकलीफ़ है?”

“फेफड़ों में कैन्सर है साहब। अभी तक तो कभी कभी आते थे डॉक्टर के पास। पिछले क़रीब हफ़्ते भर से यहीं भर्ती हैं।”

“तो अभी हालात कैसी है? इनके घर से कोई नहीं है यहाँ?”

“तबियत तो ऐसी ही है। अब कैन्सर है, क्या ही कहें। जितने दिन हैं, बस हैं। पर ठीक होने की उम्मीद नहीं हैं इनकी अब। घर परिवार में कौन हैं ये तो पता नहीं। जिस दिन भर्ती करवाया था, शायद इनका लड़का साथ आया था। उसे फिर देखा नहीं यहाँ। हाँ हर दिन शाम को 5-10 मिनट के लिए एक औरत आती है। पर पिछले एक दो दिन से वो भी नहीं आईं।”

“ठीक होने की उम्मीद नहीं तो इनको यहाँ से छुट्टी क्यों नहीं दे देते। खुद भी इतनी मिन्नतें कर रहे हैं। आख़री कुछ वक्त अपने परिवार के साथ गुज़ार लेंगे। बेकार पैसे क्यों खर्च करवा रहे हो उनके?”

“साहब अब ये सब हमारे हाथ में तो नहीं। हाँ इतना पता है कि सरकारी दफ़्तर में थे पहले। सो खर्च तो सरकारी खाते से ही जाता है। रही बात इनकी मिन्नतों की तो ये यहाँ से छुट्टी की मिन्नतें नहीं कर रहे। ये चाहते हैं कि हम कुछ ऐसी दवा दें कि ये ज़िंदा ना रहें। कहते हैं दर्द सहन नहीं होता और घर वालों पर बोझ नहीं बनना चाहते। उन्हें भी पता है कि बचना अब मुमकिन नहीं। वो तो आते जाते इंसान से यही एक चीज़ माँगते रहते हैं। कि कोई तो उन्हें आज़ाद करे। वो बाबा अपनी मौत की भीख माँग रहे हैं साहब।”

इतना कह कर वो चला गया। मैं ये सब सुनने के बाद उसे और कुछ ना कह सका। मेरा दिमाग़ सुन्न सा हो गया था। मैं दूर ही से बाबा को देखता रहा। बाबा अब सो रहे थे। बीच बीच में कराहने लगते। मुमकिन तो नहीं था पर कोशिश कर रहा था सोचने की कि कोई दर्द की किस हद पर होगा जो उसे मरना ज़्यादा आसान उपाय लग रहा होगा। ये सोचते सोचते अपने बिस्तर पर ही मेरी आँख लग गयी।

तड़के सुबह आँख खुली। थोड़ा शोरगुल था वार्ड में। देखा तो बाबा के बिस्तर के इर्द गिर्द कुछ लोग इकट्ठा थे। आख़िरकार बाबा को छुट्टी मिल गयी थी। मेरे सामने से ही उनका शरीर स्ट्रेचर पर ले जाया जा रहा था। मेरी नज़र उनके चेहरे पर पड़ी। उस झुर्रियों भरे बेजान चेहरे पर ना जाने क्यों मुझे सुकून की लकीरें दिख रही थी।

टपक गया…

आज दिन में धूप प्यारी सी लग रही थी। हल्के बादल छाए थे और धूप किसी तरह अपना रास्ता ढूँढते हुए मुझ तक पहुँच रही थी। गेस्ट हाउस की बालकनी के ठीक सामने एक अस्पताल दिख रहा था। मैं यहीं से अस्पताल के बाहर चल रही हलचल देख रहा था। कुछ लोग चेहरे पर मास्क लगा कर बाहर खड़े थे। ऊपर वाले की दया से मेरी तबियत ठीक थी, लेकिन वहाँ खड़े लोगों को देखते हुए मैं सोच रहा था कि किस मनोस्थिति में होंगे वो जो अपने परिवार के किसी सदस्य को यहाँ लाए हैं और बाहर खड़े बस यही प्रार्थना कर रहे हैं कि उन्हें साथ ले जा भी सकें। आज के माहौल मुताबिक़ देखा जाए तो ये बहुत बड़ी बात है। मैं ये सब सोच ही रहा था कि कमरे दरवाज़े पर दस्तक हुई। रसोईघर में काम करने वाला 14-16 साल का लड़का, शंकर, कमरे में दाखिल हुआ और बालकनी से बाहर उसी तरफ़ देखने लगा जहाँ मैं देख रहा था और तपाक से बोल पड़ा, “टपक गया।”

उसका ये कहना मुझे मेरे ख़यालों से खींच लाया। मैं उसकी तरफ़ मुड़ा। वो अब भी अस्पताल की तरफ़ ही देख रहा था। मैंने उससे पूछा, “क्या कहा?”

वो बोला, “टपक गया। आज भी कोई टपक गया।”

मैंने कुछ हैरत और कुछ चिढ़ में उससे पूछा, “ऐसे क्यों बोल रहा है?”

“आपको सामने वो सफ़ेद गाड़ी दिख रही है? वो गाड़ी तब ही निकलती है जब कोई मरता है, उसे शमशान ले जाने के लिए।”

अब तक मैंने ध्यान नहीं दिया था पर वहाँ एक सफ़ेद गाड़ी खड़ी थी और बस निकल ही रही थी।

“अरे, तो ज़रूरी थोड़ी है कि कोई मरा ही हो! क्या पता ऐसे ही बाहर कुछ और काम से जा रही हो।”

“साहब, पिछले महीने चार बार उस गाड़ी के पीछे भागा हूँ। एक पूरा महीना नहीं बीता और घर में छह से दो लोग बचे हैं। और कब तक बचे रहेंगे, पता नहीं। बहन छोटी है। उसका मेरे सिवा और कोई नहीं। काम के लिए बाहर निकलना ही पड़ता है। वरना हमें खिलाए कौन? रोने तक का मौक़ा नहीं लगा ठीक से। जब तक छोटे भाई की मौत के आँसू बहाता, माँ चल बसी। दो दिन बाद बाप। और फिर दादी। कौन बीमारी से गया, कौन सदमे से, ये समझने तक का वक़्त नहीं मिला। मुझे तो ये तक नहीं पता कि उन्हें ठीक से जलाया भी गया या नहीं। अब जो बचे हैं उनकी सोचता या जो चले गए उनकी। कभी कभी लगता है कि आख़री बार तो मिल नहीं पाया उनसे और ना चैन से रो ही सका उनके लिए। अब तो उनकी आत्मा भी नाराज़ होगी मुझसे। ख़ैर, ये सब छोड़िए साहब। आप आइए, खाना खाइए। ठंडा हो रहा है। आज पनीर की भुर्जी बनाई है और दाल भी। कुछ और चीज़ की ज़रूरत होगी तो बताइएगा।”

जब तक मैं कुछ समझ पाता, शंकर कमरे से जा चुका था। मैंने बालकनी से बाहर देखा तो वो सफ़ेद रंग की गाड़ी भी जा चुकी थी। और वहाँ खड़े लोग भी।

नासमझ…

मैं दौड़ के तुम्हारे पास आया था,

तुम्हारे सामने आते ही रुका,

और मैंने देखा कि तुम संभल गए थे,

ठीक वहाँ जहाँ मेरे कदम बहक गए थे,

मैं लड़खड़ा के गिरा सामने तुम्हारे,

पर तुम मुझे देखते रहे,

और मुस्कुरा कर पलट कर चले गए।

शायद मुझे भी संभलना चाहिए था,

ठहराना चाहिए था,

समझनी चाहिए थीं,

वो सब चीज़ें,

जो तुम्हें समझ आ गयी थी,

जब तुमने मुझे लड़खड़ा के गिरते हुए देखा।

१५ अगस्त

आज १५ अगस्त है। शायद ही कोई भारतीय ऐसा होगा जिसे ये दिन न पता हो। वैसे पता तो औरों को भी होगा ही, लेकिन इस दिन से वो वैसे नहीं जुड़ पाते होंगे जैसे हम जुड़ पाते हैं। वो कहते हैं न कि खुद ही मर कर स्वर्ग मिलता है। तो इस स्वर्ग की अनुभूति हमें औरों से थोड़ी ज़्यादा होती है। हालांकि हम तो मरे नहीं इस स्वर्ग के लिए, लेकिन जिन्होंने भी अपनी जान दी, इस दिन उन्हीं का शुक्रिया अदा कर लेते हैं।

कभी कभी सोचता हूँ, क्या हो गर कल के दिन मुझे ये पता चले कि पिछले जन्म में मैं एक क्रन्तिकारी रहा हूँ, और किसी जुलूस में मैंने भी “इंक़लाब ज़िंदाबाद” के नारे लगाते हुए अपने प्राण त्यागे हों। शायद इसी लिए मुझे इस जन्म में इस स्वर्ग में आने का मौका मिला। ये ख्याल फिर मुझे “मर कर स्वर्ग दिखने” वाली बात को एक अलग नज़रिये से देखने पर मजबूर करता है। और फिर एक ख्याल इस ख्याल से जुड़ता है कि शायद हम सब ही कभी न कभी समय के किसी न किसी पड़ाव में क्रांतिकारी रहे होंगे। या शायद आज भी हैं।

खैर, ये तो बहुत बड़ी बातें हैं। अब आज़ादी के मानी काफी हद तक बदल गए हैं। बच्चों के लिए इस दिन का मतलब है स्कूल के कार्यक्रम, मिठाइयां, देशभक्ति के गीत गाना और किन्हीं जाने माने स्वतंत्रता सेनानी की वेशभूषा में तैयार होकर स्कूल जाना। बड़ों के लिए ये रविवार के अलावा महज़ एक छुट्टी का दिन रह गया है। इसलिए रविवार को १५ अगस्त पड़ना हम सब के मन में एक टीस पैदा करता है। मुझे लगता है हमारे मन की ये टीस उस टीस का एक बहुत छोटा अंश मात्र है जो उन लोगों के मन में उठी होगी जिन्होंने गुलामी सही है। और मैं सिर्फ अंग्रेज़ों की गुलामी की बात नहीं कर रहा। मैं आज़ाद होने के बाद की गुलामी को भी इसमें गिनता हूँ। पेट भर खाना खाने के बाद भी मन की भूख जो तृप्त नहीं हो पाती, कुछ वैसी ही कैफियत होती होगी आज़ादी के बाद वाली गुलामी में। व्यक्तिगत तौर पर मैं खुशनसीब रहा कि इस “आज़ाद गुलामी” से मैं दूर था। या शायद गुलाम था भी या हूँ भी पर अब तक इस बात का एहसास नहीं हुआ। और मुझे अपने जैसे कई “आज़ाद” लोग दिखते हैं, हर दिन, हर जगह, हर ओहदे पर।  शायद क्रांति ख़त्म नहीं हुई है। इस आज़ादी के बाद भी अभी हमें खुद कई बंदिशों से आज़ाद होना है। कई बंदिशों से औरों को आज़ादी दिलानी है। याद रखना, हम सब ही कभी न कभी, समय के किसी न किसी पड़ाव में एक क्रांतिकारी थे।

इंतज़ार…

कभी जब अनजाने से ही,

कहीं मुलाक़ात होगी तुमसे,

मुझे मालूम है कि तुम तब,

नज़रें चुरा के और झुका के,

मेरे नज़दीक से गुज़रोगे,

तब भी जब मालूम होगा,

तुम्हें कोई और रास्ता,

फ़क़त इसलिए कि तुम,

बस एक बार देख सको,

मेरी आँखों में,

अपने इंतज़ार को।

उसके निशाँ…

उसका साया घर से नहीं जाता,

पैरों का निशाँ दर से नहीं जाता।

वो चला तो गया दिल से कबका,

मगर कमबख़्त सर से नहीं जाता।

अरसा हुआ यूँ उसकी सूरत देखे,

जमाल उसका नज़र से नहीं जाता।

पुराने दिन…

खूब बड़े थे वो दिन भी,

जब साथ शायरी होती थी,

एक हाथ जाम पे होता था,

एक हाथ डायरी होती थी।

अब लफ़्ज़ हैं बिखरे बिखरे,

और ज़हन गुम सा रहता है,

खुद ही से अनबन रहती है,

टूटा कोई टुकड़ा रहता है।

वो तारा…

वो तारा देख रहे हो तुम?

कल जब हम साथ नहीं होंगे,

तो कभी,

किसी,

काली,

अंधेरी,

अकेली,

रात में,

तुम उसी तारे को देखना।

मैं तुमसे मुलाक़ात करूँगा,

उसी तारे को देखते हुए,

और मेरी आँख में तब,

तुम्हारी आँख का आँसू रहेगा,

ठीक वैसे ही जैसे,

तुम्हारी आँखें नम रहेंगी।

खूबसूरत…

कुछ परेशानियाँ छुपाए हुए,

कुछ दर्द दिल में दबाए हुए,

वो मुस्कान होंठों में सजाए,

तुम जब भी सामने आते हो,

दिल के तार छू जाते हो।

बहुत मज़बूत हो तुम।

हाँ, जानता हूँ मैं कि,

कहना आसान है,

और जीना मुश्किल,

हर वो पल जो तुम जीते हो।

शायद इसलिए तुम,

ज़्यादा खूबसूरत हो,

हर उस शक्स से जिसने,

लड़ने की जगह,

चुप रहना,

दबे रहना,

ज़्यादा बेहतर समझा।

बेनाम ख़त…

फ़र्ज़ करो कि मैं तुम्हें एक ख़त लिखूँ,

बेनाम ख़त,

जिसमें कुछ ना हो मेरे बारे में,

क्या तुम पहचान लोगे?

मेरी लिखावट ना सही,

मेरी बयानी?

क्या उसे पहचान पाओगे?

चलो वो भी जाने दो,

क्या उन ज़िक्रों को जान जाओगे,

जिन पर हम ठहाके लगा के हँसे थे,

वो सवाल जिनको सुनकर तुमने,

मुझे पागल कहा था।

वो नाम जो मैं तुम्हें दिया करता था,

और तुम खीझ कर जवाब देते थे सुन कर,

और फिर मुस्कुराते थे।

हाँ, काफ़ी अरसा हो गया है इन सबको,

पर मुझे यक़ीन है,

ये सब यादों का एक गुच्छा बन कर,

तुम्हारे ज़हन में कहीं क़ाबिज़ होगा,

और मेरा ख़त मिलते ही,

तुम उस पुराने संदूक को खोलोगे,

जिसमें हमारी पुरानी,

रंग उड़ी हुई,

बदहवास सी यादों की,

पोटली रखी होगी तुमने।

मुझे यक़ीन है तुम खोलोगे उस संदूक को,

इसी यक़ीन के यक़ीन पर,

मैं तुम्हें ख़त लिखूँगा,

ज़रूर लिखूँगा,

और फिर वो ख़त,

उसी संदूक का हिस्सा बन जाएगा।

ये पेड़…

कभी तूफ़ाँ में झूलते हुए पेड़,

कभी गर्मी में सूखते हुए पेड़,

हवाओं का ये मधुर संगीत,

और उस पर झूमते हुए पेड़।

कभी बाद बरसात बरसते,

और कभी मंद मंद महकते,

कभी ख़ुदगर्ज़ी से बेहद आहत,

आदम ज़ात से रूठते हुए पेड़।

साथी हैं मेरी ग़ज़लों के,

मेरी नज़्मों की फसलों के,

कभी मेरे आंसुओं से भीगे,

साथ कभी टूटते हुए पेड़।

चश्मदीद मेरे बचपन के,

यार थे ये मेरे यौवन के,

उम्र-ए-दराज़ हैं अब तो,

दिन-ब-दिन भूलते हुए पेड़।

सीख सरल मिलती है हर पल,

समझ सके तो समझ ले पागल,

जड़ें ज़मीन से जोड़ के गहरी,

आसमानों को चूमते हुए पेड़।

जाने क्यूँ…

कुछ अजीब सा आलम रहता है आजकल,
खुद ही से रूठ जाता हूँ,
खुद ही को फिर मनाता हूँ,
खुद ही को तबाह करके,
खुद को खुद ही से बनाता हूँ।
ना जाने किसका इंतज़ार है,
जाने क्यूँ दिल उदास है,
ना आगे किसी से मिलने की उम्मीद,
ना पीछे किसी के आवाज़ देने की आस है।
जाने क्यूँ चलते चलते कदम रुक जाते हैं,
जाने क्यूँ भूल जाने पर भी लोग याद आते हैं,
जाने क्यूँ जाते हुए कोई हाथ थाम लेता है,
जाने क्यूँ भूला हुआ कोई अकेले में साथ देता है?

मन नहीं करता…

मुझे अब और लिखने का मन नहीं करता,
अपने मन जैसा दिखने का मन नहीं करता।

नफ़ा नुकसान अब बहुत झेल लिया मैंने,
इश्क़ में और बिकने का मन नहीं करता।

इन हार जीत के चक्करों से तंग आ चुका हूँ अब,
इस बाज़ीचा-ए-जीस्त में और टिकने का मन नहीं करता।

मैं नासमझ, नामुराद, मुझे अधपका ही रहने दो,
अब इन साँसों के तवे में सिकने का मन नहीं करता।

उम्मीद है कभी तो किसी लकीर के माने खुलेंगे,
इनका अब मेरी हथेली से मिटने का मन नहीं करता।

मदमस्त…

वो ज़ुल्फ़ें बिखराए बेफिक्री से झूमना तेरा,
वो खुद ही को देख कर खुद ही को चूमना तेरा,
वो रास्तों में गुम हो कर भटकने का डर चेहरे पर,
अगले ही पल फिर दुपट्टा लहराए हरसू घूमना तेरा,
तेरी अदाओं से वाकिफ़ ये हवाएँ, ये दश्त हैं,
तभी तो सब ही तेरे साथ आज मदमस्त हैं।

वो सुंदरी…

मैं रंग रूप का मारा सा,
वो सुंदर सी इक काया सी,
इक नामुराद सी जान हूँ मैं,
वो अरमानों की छाया सी।

मैं घोर मलिन लोभ मोह,
वो कोमल कोई माया सी,
उसकी छवि “रब” का प्रकाश,
मैं “उसकी” मिट्टी ज़ाया सी।

सूरत उसकी मन का सुकूँ,
तस्वीर मेरी पराया सी,
मेरे चरित्र पर कोहरा चढ़ा,
उसकी मूरत नुमाया सी।

ये मरासिम…

ये जो जज़्बातों में बह कर,

राब्ता क़ायम किया था हमने,

इस मरासिम ने तुझको क्या दिया?

कुछ भी नहीं।

इस मरासिम ने मुझको क्या दिया?

कुछ भी नहीं।

पर हाँ, खुदगर्ज़ निकला ये राब्ता,

न तुझसे न मुझसे वफ़ा निभाई,

तुझसे तेरा सुकून ले गया,

मुझसे मेरी ज़िंदगी।

रूह का लिबास बदल लें…

ये रूह मेरी हर पल,
कहती है चल,
अब लिबास बदल लें,
कुछ एहसास बदल लें,
बदल लें लफ़्ज़ों के मानी,
दूर और पास बदल लें।

और खुश रहने की वजहें,
किसी और की मुस्कान थी जो,
अब बेवजह ही मुस्कुराएँ,
वो सूरत-ए-उदास बदल लें।

मौके कई दे दिए अब तलक,
यक़ीन का इम्तिहान भी बहुत हुआ,
इस बार ख़ुद और ख़ुदा पर,
कुछ थोड़ा विश्वास बदल लें।

ख़ुद ही का हमसफर अब,
ख़ुद ही को बनाया जाए,
वो ख़्वाहिशों में कहीं दबा हुआ,
अगर और काश बदल लें।

मैं और तू के तर्क से दूर,
उस शजर की छाँव में बैठें,
कुछ देर दम लेकर फिर,
कुछ ज़मीं, कुछ आकाश बदल लें।

इंतज़ाम सब है…

महफिलों से भरी गलियों में रहता हूँ,
जाम, इश्क़, यार, सर-ए-आम सब है।

तू बस एक बार आने की हामी तो भर,
मेरी जान, यहाँ इंतज़ाम सब है।

कोई यहाँ तुझे पहचान भी जाए तो डर नहीं,
मेहमान-ओ-मेज़बान-ओ-मकान, यहाँ बदनाम सब है।

तेरा मज़हब, मेरा खुदा, किसी का ज़िक्र नहीं,
यहाँ के काफिरों में ये हराम सब है।

तन्हाई का नाम-ओ-निशाँ नहीं यहाँ,
दिल-फेक आशिक़ मेहरबान सब है।

वो पल…

तेरी तस्वीर आज जब मेरे रूबरू हुई,
इक पल को वो बात याद आई,
जो तब तुझसे कहना रह गया,
न पलकें झपकाई, न होंठ हिले,
इक आखरी अक्स तेरा था जो आंखों में,
वो भी इस कतरे आँसू के साथ बह गया।

मैं तकता रहा तेरा चेहरा,
वो तेरे बाल, तेरे रुखसार,
और तेरी आँखों से छलकता प्यार,
मैंने बस वक़्त गँवा दिया लफ्ज़ चुनने में,
तू आया, मुस्कुराया, हाथ पकड़ा,
और अलग होने का अपना फरमान कह गया।

सब तो ख्वाब सा ही लगा उस पल,
इश्क़ कहाँ, बचपना था, शरारत थी,
फिर भी तेरे बिना ज़िन्दगी आफत थी,
मैं काफी देर तक उसी जगह खड़ा रहा,
तूने मुड़ के देखा नहीं पर,
वो कच्चा पक्का सा रेत का महल तेरे जाते ही ढह गया।

आज इतने सालों बाद जब फिर तुझे देखा,
दिल फिर उसी जगह जा के गिर पड़ा,
जहाँ उस रोज़ मैं था खड़ा,
तब लफ्ज़ नहीं थे तो तुझे रोक न पाया,
आज लफ्ज़ हैं, बेशुमार हैं, पर तू नहीं,
दिल मेरा तब भी चुप था, अब भी सब सह गया।

तू मोहताज नहीं…

तू किसी तारीफ की मोहताज नहीं,
तू मल्लिका है,
भले तेरे सिर पे ताज नहीं।

तेरा जमाल छिपा रहे दुनिया से,
ऐसा कोई पर्दा, कोई रिवाज नहीं।

तेरे हुस्न से टक्कर हो बराबर की,
यहाँ हसीन ऐसा कोई आज नहीं।

यहाँ से वहाँ तक कि कतार में देख ले,
कौन सा ऐसा दिल है जिसमें तेरा राज नहीं।

जो बात रखनी है खुल के बोल,
मेरे दिल की मेज़ पर दराज नहीं।

इज़हार-ए-इश्क़…

इतनी लंबी ग़ज़लें लिख डाली,
ये पन्ने भर भर के नज़्में,
ये अश’आर के पुलिंदे लगे हुए,
बस इतना ही तो कहना था कि चाहते हो मुझे।
घर को जाते हुए उस सुनसान रास्ते पर,
चलते हुए मेरा हाथ छू लेते,
काफी होता उतना ही मेरे समझने के लिए।
या फिर मुझे गले लगा लेते,
जब उस शाम बारिश के दौरान,
बिजली कड़की थी, और सहम गई थी मैं।
या फिर बस सामने आ कर,
इज़हार कर देते अपनी मोहब्बत का,
जवाब तो सवाल से पहले ही,
तुमने मेरी आँखों मे पढ़ लिया था न।

एहसान फरामोश…

मैंने चुन चुन के उन्हीं का नाम उछाला है,
जिनके कपड़े सफेद और दिल काला है।

तुम कहते हो आएगी सहर इक रोज़ ज़रूर,
मुझे भी ज़रा दिखाओ किधर को उजाला है।

एक पल अर्श पर, अगले ही पल फर्श पर,
इस जग का रवैया ही निराला है।

इस अहल-ए-जहाँ से क्या उम्मीद रखूँ ईमानदारी की,
जिसने मीरा की भक्ति में भी खोट निकाला है।

बात निकाल दूँ अभी गर मैं, बिखर जाएंगे कई,
न जाने कितनों की दुनिया को लफ़्ज़ों में अपने सम्हाला है।

तुम सामने न आ जाना, पहचान लूंगा तुम्हे,
तुम क्या जानो, ये मंज़र किस कदर अब तक टाला है।

लड़खड़ाऊंगा मैं तो सम्हालेंगे कई हाथ मुझे,
क्या खूब अब तक ज़हन में गलतफहमी को मैंने पाला है।

और तो किसी से उम्मीद न थी मुझे तेरे सिवा, ए ख़ुदा,
अब छोड़, कहने को न बचा तुझसे भी अब कोई नाला है।

उस तक पहुँचे…

कोई तो दास्तान इन्तेहाँ तक पहुँचे,
तेरे बिन कौन जाने कौन कहाँ तक पहुँचे।

मैं बुलाता हूँ तुझे मिलने यहाँ मुसलसल,
ये तमन्ना मुकम्मल जाने किस जहान तक पहुँचे।

दर्द, इश्क़, आंसू, मुस्कान, बहुत कुछ है,
फरियादी कोई लेकिन पहले दुकान तक पहुँचे।

मेरे हँसने की आवाज़ें सुनाई देती हैं तुझे अक्सर,
कभी ये सदा भी तुझ मेहरबान तक पहुँचे।

सुबह ही करवा दी थी खबर उसे जनाज़े की,
शायद ही वो घर पर शाम तक पहुँचे।

पहुँच से दूर बहुत है मेरी वो अब,
कम से कम अब हाथ मेरा मेरे जाम तक पहुँचे।

आखरी खत…

वो उनका आखरी ख़त भी आज खो गया,
दूर तो होना ही था उन्हीं की तरह, सो गया।

डरता हूँ कि कहीं उनसे भूले से मुलाक़ात न हो,
क्या पता पहचाने ही न, सामने उनके जो गया।

नाम उनका आया जब महफ़िल में मेरी आज,
होंठ तो मुस्कुराए, दिल तो बस रो गया।

क्यों इल्ज़ाम आए मुझपर दिल लगाने का उनसे,
उनका होकर रह गया, रूबरू उनके जो गया।

रुस्वा मुझे किया कुछ इस सलीक़े से,
खुद तो वो गया, हर याद धो गया।

अब तो बस मिलना मुझसे शायरी में होता है,
बात पर होती नहीं, दूर इस कदर वो गया।

छुट्टी…

इक इक कर सामान कम होता चला गया,
पहले बहु, फिर बेटा चला गया।

अब फिर बस हम दो ही घर में अकेले बचे,
अगली बार लंबी छुट्टी आऊंगा, कहता चला गया।

अब फिर वही रूखी सी सुबह होगी,
गुम से बेमौसम बरसात की तरह होगी।

न हमें तेरा चेहरा देखने का मौका होगा,
न तेरे साथ बैठने का कोई तरीका होगा।

अब तुझसे बातें न होंगी अखबार की,
बुराई अब किससे करूँगा भ्रष्ट सरकार की।

नाश्ता न करने का इक बहाना मिल जाएगा,
दिन का खाना खाते हुए कौन सा चेहरा खिल जाएगा।

शाम की सब्ज़ी अब वैसी ज़ायकेदार न होगी,
रोटी की मांग एक के बाद दूसरी की बार बार न होगी।

अब तो ये बाग भी यूँ ही बेज़ार रहेगा,
अब इसे भी मेरी तरह तेरी अगली छुट्टी का इंतज़ार रहेगा।

छूने दे…

छूने दे किसी बहाने से,
या दूर कहीं ज़माने से,
किसी की नज़र में हम न आएं,
मेरी नियत पे कहीं किसी का शक न जाए।

जानता हूँ कि पसंद है तुझे,
तेज़ दौड़ना और हवाओं में उड़ना,
कुछ इत्मिनान रखना ख्वाइशों पे लेकिन,
तेरा यार कहीं आधे में थक न जाए।

दास्तान-ए-मुलाक़ात…

न हुआ उसका तो तू क्या तू हुआ,
कैसा तेरा इश्क़ जो उसके हाथों न बेआबरू हुआ।

किस्से मुक़म्मल तो कई होंगे पास तेरे,
बता कोई वाकिया जो उसके नाम से शुरू हुआ।

दिन का सुकून गया, रातों की तसल्ली गयी,
वाह रे, तेरा तो इश्क़ ही तेरा उदू हुआ।

कयामत हुई या सैलाब आया, या दर खुदा का खुला,
भला मंज़र कैसा था, जब तू उसके रूबरू हुआ।

लफ़्ज़ों को अपने न ज़ाया कर, सुन रहा हूँ,
तेरी आँखों से दास्ताँ, कि यूँ हुआ औऱ यूँ हुआ।

क्या बात है…

माना तू ख़फ़ा है मुझसे,
पर मेरी नज़्मों से नाराज़गी कैसी,
इन्होंने तो नहीं तोड़ा दिल तेरा,
फिर इन पर तेरी बेरुखी की बेचारगी कैसी।

इनमें ही मेरा इश्क़ बसता,
इनमें ही तेरा अक्स दिखता,
हाँ, हो सकता है दिखे होंगे कभी साथ मेरे,
पर होते हैं ये अक्सर पास तेरे।

इनसे तो तूने घंटों बातें की हैं,
इनके जरिए मुझसे जाने कितनी मुलाक़ातें की हैं,
इन्हीं के सजदों में कभी तेरे आँसू बहे थे,
इन्हीं की पनाहों में छिपे तेरे कहकहे थे।

इन्हीं में तेरे हर मिज़ाज को मैंने पिरोया है,
इन्हीं ने अकेले में तेरे ज़ख्मों को भी धोया है,
इन नज़्मों के ख़ुमार में कितनी ही शब ढली,
इन्ही की मखमली चादर में कितनी सहर खिली।

इनपे तेरा हक़, तेरा ही ज़ोर रहेगा,
तेरे होने से बोल उठता था हर लफ्ज़,
तेरे बिन शायर भी क्या और कहेगा,
इनका वजूद है तब ही तक,
जब तक तू साथ है,
वार्ना मरे हुए शेरों पे कौन कहता है,
“क्या बात है”।

ज़ायका सुर्ख रंग का…

गर चे वाक़िफ़ है हर दास्ताँ-ए-मोहब्बत से,
ऐ साक़ी, ज़ायका मुझे सुर्ख़ रंग का बता।

हँसाना, रुलाना या रुसवा कर जाना,
क्या है मोहब्बत, मुझे भी सिखा।

तेरी नज़र से नहीं परे इन दो जहाँ के सच,
जन्नत की हक़ीक़त, जहन्नुम की हूरें दिखा।

सुना है सिखाता है तू सभी को इश्क़ के गुर,
मुझको भी ज़रा ख़ुदगर्ज़ी के नुस्ख़े सिखा।

टूटते देखे हैं मैंने सितारे तेरी ठोकरों पे,
कुछ ऐसी ही मोहब्बत मुझसे भी जता।

बहुत जी लिए ख़ुश फ़हमियों से घिर कर,
अब कुछ दर्द मुझे दे, कुछ ख़ुद को सता।

कई होंगे यक़ीनन आस पास तेरे,
कुछ वक़्त ज़रा ख़ुद के साथ बिता।

मुलाक़ातें कर ले कुछ रक़ीबों से भी,
बज़्म में शामिल कर, दूरियाँ मिटा।

अलग बात है…

आँखें उनकी ढूंढती नहीं अब भीड़ में आँखें मेरी,
कभी सुकून-ए-दिल था दीद मेरा भी, अलग बात है।

अब और नहीं मुस्कुराते वो देख कर मुझे,
अक्सर पहले याद मेरी हँसा देती थी उन्हें, अलग बात है।

कहाँ आना होता है मेरी गली में उनका आजकल,
भूल जाने के बहाने ही मिल जाया करते थे पहले, अलग बात है।

नज़्में मेरी पढ़ पढ़ कर रातें गुज़रती थी उनकी,
अब रक़ीबों की महफिलों में मदहोश रहते हैं, अलग बात है।

छुप कर मुझे देखना तो दस्तूर सा था उनका,
सामने से गुजरते हुए भी मुँह फेर लेते हैं अब, अलग बात है।

वादा तो था ज़िन्दगी भर साथ निभाने का,
दो कदम चल कर भूल गए जो, अलग बात है।

चलते रहने दो…

न तुमसे बातें साफ कही जाएंगी,
न मुझसे हालात नुमाया होंगे,
इल्ज़ाम मैं ले लेता हूँ तुम्हारे भी,
बेकार ही लफ्ज़ तुम्हारे ज़ाया होंगे।

कौन सा तुम्हें कोई फर्क ही पड़ जाएगा,
खून हो या आँसू मेरे, बहने दो,
न बस में कुछ मेरे है ना तुम्हारे,
जैसा चल रहा है, चलते रहने दो।

उसका ख़याल…

उसके जिस्म को पा जाने की तमन्ना कभी न थी,
पर उसकी रूह को छू लेने का ज़रूर ख़याल रहा।

मेरे ज़ेहन में उसका अक्स जाने कब से है काबिज़,
क्या मैं भी हूँ उसकी आँखों में, ये सवाल रहा।

वो आएगी महफ़िल में यक़ीन था, देर से ही सही,
फिर भी उससे मिलने तलक ये दिल बेहाल रहा।

छू कर उसे जल गए उसके कई दीवाने-परवाने,
उसकी पनाह से दूर रह कर जीने का मुझको मलाल रहा।

दिन फिर गुज़र गया उसके दीद के इंतज़ार में,
खुद से अकेले में उसकी बातों का सिलसिला बहरहाल रहा।

उसने नज़र की थी मुझपर बस पल भर के लिए,
ता उम्र ख़ुशियों से मैं लेकिन मालामाल रहा।

दुनिया चल रही है…

साँसे थमी हैं, उनकी कमी खल रही है,
बाकी दुनिया जैसी थी, वैसी ही चल रही है।

सब ठीक है यूँ तो, पर ये क्या,
उन्होंने मुस्कुराया, धड़कन बहल रही है।

मैं अब भी वही हूँ, नियत का अपनी पक्का,
फिर क्यों उन्हें देख आज रूह पिघल रही है?

बहुत पी ली उनके नाम पर, अब बस भी कर यार,
लड़खड़ाती तेरी चाल अब बहुत सम्हल रही है।

इंतेज़ार अब बेसब्र हो चला है, बा-मुश्किल होगा,
देखो अब तो ये शमा भी रंग बदल रही है।

ऐसे कैसे ठंडी पड जाएगी आग उनके दिल की,
जब तलक उनकी लगाई आग यहाँ जल रही है।

थी उम्मीद, पर अब नहीं, उन्हें गले लगाने की,
जैसे दिन-ब-दिन उनसे मुलाकात की तारीख टल रही है।

बेहिसाब सितम उनके, और बेचैन जान हमारी,
उनकी शाम सुकून में भला कैसे ढल रही है।

गले से लगा कर समां लूँ खुद में उनको,
ऐसी भी तमन्ना अब इस दिल में पल रही है।

मैंने तो अपनी जान को जाते हुए देखा है,
क्या मुझे जाता देख उनकी जान भी हथेली से फिसल रही है?

तेरा इश्क़…

ये अल्फ़ाज़ों का सौदा मुस्कान के साथ,
वो अपनों सा सलीखा मेहमान के साथ,
मुझे अपने नज़दीक रखना गुमान के साथ,
ऐ साक़ी, तेरा इश्क़ समझना आसान नहीं।

कभी मेरी पनाहों में तेरा गुम हो जाना,
कभी तेरा मेरे मुझसे नज़दीक आना,
इक पल सब याद, अगले पल भूल जाना,
ऐ साक़ी, तेरा इश्क़ समझना आसान नहीं।

कभी चोट मुझपे मुसलसल तेरी,
कभी फिर बेहिसाब मोहब्बत तेरी,
कभी सिर्फ़ दीदार की इजाज़त तेरी,
ए साक़ी, तेरा इश्क़ समझना आसान नहीं।

कभी तेरी हर महफ़िल की जान मैं,
तेरा ज़मीन-ओ-आसमान मैं,
तेरा दीन धर्म ईमान मैं,
कभी अजनबी अनजान मैं,
ऐ साक़ी, तेरा इश्क़ समझना आसान नहीं।

तन्हाई का कभी तेरे इलाज हूँ,
कभी तेरी ज़िंदगी का साज़ हूँ,
कभी तो मेरा वजूद नहीं,
कभी तेरा हुस्न तेरा मिज़ाज हुँ,
ए साक़ी, तेरा इश्क़ समझना आसान नहीं।

तेरा इश्क़ मेरा फ़ितूर है,
तेरी रुसवाई भी मंज़ूर है,
तेरी मुस्कान मैं वजह नहीं,
तू नाराज़ मेरा क़ुसूर है,
ऐ साक़ी, तेरा इश्क़ समझना आसान नहीं।

सहर तुझसे, तेरी ही हर शाम,
तू ही बक्श देता है कभी ये जान,
तेरे ही दर पे सजदा सलाम,
तेरे ही लबों से ज़हर का जाम,
ऐ साक़ी, तेरा इश्क़ समझना आसान नहीं।

तू मेरी ज़िंदगी में…

तेरी सूरत अनजाने में ही सही,
पर आँखो में बसी है,
तुझसे दूरी मेरी साँसों में कमी है,
मेरी हर याद में तेरी ही छवि है,
तू मेरी ज़िंदगी में बस यूँ ही नहीं है।

तुझपे हक़ है मेरा,
मुझमें तू समाई है,
ना फिर जुदा हो सके,
खुदा ने ऐसी कुछ बनाई है,
तू नहीं आसपास जो,
आँखो में मेरे नमी है,
तू मेरी ज़िंदगी में बस यूँ ही नहीं है।

सुकून दिल को तेरे नाम से,
बेचैन जान मेरी फुरकत-ए-शाम से,
तेरी बातें फिर ख़ाली जाम से,
तुझसे मुलाक़ात बहाने या काम से,
इश्क़-ओ-जंग में सब सही है,
तू मेरी ज़िंदगी में बस यूँ ही नहीं है।

तू भी तो बातों के बीच रूकती होगी,
रास्तों में रुक कर मेरी राह तकती होगी,
तेरी भी राह मेरी गलियों में भटकती होगी,
मुझे देख तेरी भी चुन्नी सरकती होगी,
सच कह, मेरी सदा तूने सुनी है,
तू मेरी ज़िंदगी में बस यूँ ही नहीं है।

तू मेरी ज़िंदगी में…

तेरी सूरत अनजाने में ही सही,
पर आँखो में बसी है,
तुझसे दूरी मेरी साँसों में कमी है,
मेरी हर याद में तेरी ही छवि है,
तू मेरी ज़िंदगी में बस यूँ ही नहीं है।

तुझपे हक़ है मेरा,
मुझमें तू समाई है,
ना फिर जुदा हो सके,
खुदा ने ऐसी कुछ बनाई है,
तू नहीं आसपास जो,
आँखो में मेरे नमी है,
तू मेरी ज़िंदगी में बस यूँ ही नहीं है।

सुकून दिल को तेरे नाम से,
बेचैन जान मेरी फुरकत-ए-शाम से,
तेरी बातें फिर ख़ाली जाम से,
तुझसे मुलाक़ात बहाने या काम से,
इश्क़-ओ-जंग में सब सही है,
तू मेरी ज़िंदगी में बस यूँ ही नहीं है।

तू भी तो बातों के बीच रूकती होगी,
रास्तों में रुक कर मेरी राह तकती होगी,
तेरी भी राह मेरी गलियों में भटकती होगी,
मुझे देख तेरी भी चुन्नी सरकती होगी,
सच कह, मेरी सदा तूने सुनी है,
तू मेरी ज़िंदगी में बस यूँ ही नहीं है।

मिलने की तारीख…

उनके ज़हन को बेचैनी का ख्याल दे,
ऐ दिल, उनसे मिलने की तारीख एक दिन और टाल दे।

चलते रहने दे इशारों के ये सिलसिले यूँ ही,
कुछ और रातें उन्हें सौगात-ए-बेहाल दे।

आजकल मिलते भी हैं तो कुछ कहते नहीं,
मेरे रक़ीब को बोल, उन्हें कुछ सवाल दे।

तो क्या हुआ जो उनका यार है साथ उनके,
किसने मना किया कि वो खैरात-ए-जमाल दे|

वो यूँ ही मिल जाए हर रोज़ तो क्या ही मज़ा,
गुज़ारिश-ए-किस्मत, गैरमौजूदगी का उनकी मलाल दे|

उनसे आगे जी कर क्या ही करना है मुझे,
बस उनकी दीद होती रहे, इतने साल दे|